मंगलवार, मई 31, 2011

शायर को तर्के-साग़र की याद आई

शायर को तर्के-साग़र की याद आई

फिर ग़ालिब की और जिगर की याद आई


दिलको तेरी यादों ने ऐसे घेरा

जैसे शीशे को पत्थर की याद आई



खुशबू मिट्टी की लेकर आई बरसात

बिरहामें तेरे इत्तर की याद आई



रोना आया जब मुझको टूटे दिलपर

भूखों के हाल-ए-बदतर की याद आई



भूलभुलैयामें दुनिया की जब खोया

तब जाकर मुझको रहबर की याद आई



शम्म्‌-ए-मेहफिल रोशन है मेरे आगे

क्यों मुझको बुझती लौ घर की याद आई ?

रविवार, मई 01, 2011

अब आपके दिलसे हमें जाना नहीं

अब आपके दिलसे हमें जाना नहीं

मालिक हैं, मेहमाँ की तरह रहना नहीं



बस एक ज़ेवर आपने पहना नहीं

शरमाइये, इस शर्मसा गहना नहीं



माना, नहीं है शर्मसा गहना मगर

क्या उम्रभर दीवार यह ढहना नहीं ?



जल-जल शबिस्ताँ के दिये बुझने लगे

फिर भी मुकम्मल आपका सजना नहीं



जैसा भी है, हर शेर अपना है, 'भँवर'

नक़्ल-ए-असद, या मीरसा कहना नहीं