गुरुवार, सितंबर 15, 2011

दफ़न कविताएँ

बहुत सी आधी-अधुरी कविताएँ दफ़न हैं                 
मेरी कापी के वीरान पन्नोंमें.

वे कविताएँ जो मूलत: अक्षम थी
पूर्णत्व तक पहुँचनेमें;
जिनका जीव था केवल
कुछ शब्दों का, चंद पंक्तियों का.

वे कविताएँ जो स्वयं नहीं उभरी
मन की गहराईयोंमें छिपे
बीते, अधभूले अनुभवों से;
जिनमें कुछ ना था
सिवा कारीगरी के.

वे कविताएँ जिनमें
ना मेरा प्रतिबिंब था,
ना समाज का,
ना हमारे सनातन असमंजस का.

वे कविताएँ जो परे थी
मेरी भाषा की मर्यादाओं से;
जिनके गर्भ का ओज
मेरी क्षीण प्रतिभा सह ना सकी.

उनकी मृत्यु का मुझे दुख नहीं.

मैं सोग मनाता हूँ उनका
जो समय से आगे चलकर,
सभ्यता के मान्य संकेतों को तोडकर
खोजना चाहती थी नये मार्ग
सत्य की ओर जानेवाले.

मैंने अपनेही हाथों से
उनकी भ्रूणहत्या कर दी.
हर कोई सॉक्रॅटिस नहीं हो सकता... 

सोमवार, सितंबर 12, 2011

दिल-ए-नाशाद को बेताब-ओ-बेकरार हुए

 दिल-ए-नाशाद को बेताब-ओ-बेकरार हुए

 हो गया एक ज़माना विसाल-ए-यार हुए



गुंचा-ए-दिल कि तरफ देख, सूखने न लगे

एक अरसा हुआ आँखों को अश्कबार हुए



वह कहीं झीनत-ए-दीवार कर न ले सर को

कू-ए-जानामें थे आशिक कईं शिकार हुए



दोस्त कुछ खास मिले हैं उन्हें ज़रूर वहाँ

लौट आये न कभी जो नदी के पार हुए



वह न पुरसिश को चले आए बेनकाब, 'भँवर'

अभी दो दिन न हुए तीर आरपार हुए

सोमवार, सितंबर 05, 2011

हर हर्फ़ के वज़न पर होगा बवाल कब तक

हर हर्फ़ के वज़न पर होगा बवाल कब तक

अल्फ़ाज़-ए-शायरी को तरसे खयाल कब तक



ग़मसे निजात माँगें ऐसे नहीं सुखनवर


जो रूह-ए-शायरी है उसका मलाल कब तक



इक रूह ही नहीं है पहचान आदमी की


बहलाये जिस्म-ओ-जाँ को ख्व्वाब-ए-विसाल कब तक



मिटने लगी हैं आँखें, फिरभी है बंद मुठ्ठी


दिलसे लगा रखोगे यह जान-ओ-माल कब तक



अब और इम्तिहाँमें बैठा न जाये मुझसे


यह ज़िंदगी करेगी तेढे सवाल कब तक