शुक्रवार, मई 24, 2013

हर किसी की आँखों में भीगासा है मंज़र कोई

हर किसी की आँखों में भीगासा है मंज़र कोई
पर-कटे ख़्व्वाबों पे शायद रो रहा है हर कोई

इस कदर बदनाम नेताओंने उसको कर दिया
अब न पहनेगा हमारे देश में खद्दर कोई

आनेवाली नस्लों से क्या हम कभी कह पाएँगे

"आज है गुलशन जहाँ, कल थी ज़मीं बंजर कोई"

लढने-मरने के लिये इक लफ्ज़ काफी है यहाँ
शै वही है, कह रहा है बुत कोई, पत्थर कोई

ले गया जिस सिम्त दिल, चलते गये मेरे कदम
राह से मतलब उन्हे जिनको मिला रहबर कोई

फिर हुआ इन्सानियत का भूत सर मेरे सवार
फिर उतारो आके मेरे पीठ में खंजर कोई

दश्त-ए-सहरा से मुकर्रर की सदा आती रही
हो न हो, उस पर से गुज़रा है नया शायर कोई

किस लिये मातम, 'भँवर', अब जश्न होना चाहिये
ढूँढती है रूह घर इस जिस्म से बेहतर कोई  

सोमवार, मई 13, 2013

ताउम्र चलने के सिवा चारा नहीं है



ताउम्र चलने के सिवा चारा नहीं है
है कौन जो इस राह का मारा नहीं है?

दुनिया न रोशन कर सका तू, ना सही, पर
क्या तू किसी की आँख का तारा नहीं है?

है आग की लपटों में तेरी ज़िंदगी तो
खुशियाँ मना, जीवन में अँधियारा नहीं है

खुशबू पसीने की बदन से आ रही है
कहती है, यह इन्सान नाकारा नहीं है

रुख मोड लेती है मगर रुकती नहीं है
क्या ज़िंदगी बहती हुई धारा नहीं है?

माना 'भँवर' मंज़िल तलक पहुँचा नहीं है
वह राह में भटका है, आवारा नहीं है




Photograph by Pushkar V. Used under Creative Commons license.