गुरुवार, नवंबर 06, 2014

ज़िंदगी की दौड में नींद कम, आराम कम

ज़िंदगी की दौड में नींद कम, आराम कम
इस लिये दे पाते हम ख़्व्वाब को अंजाम कम

अब खुमार आता नहीं, दर्देदिल जाता नहीं 
जाये भी तो किस तरह; ग़म जियादा, जाम कम

फलसफे इस दौर के खुष्क हैं, बेजान हैं
शेख, पंडित हैं बहुत, ग़ालिबोखय्याम कम

साफ ज़ाहिर है कहाँ लोग पाते हैं सुकूँ
बढ रहे हैं मैकदे, हो रहे हैं धाम कम

कौन कहता है, 'भँवर', दौर है महँगाई का?
हो रहा है दिनबदिन आदमी का दाम कम 

मंगलवार, जुलाई 29, 2014

तजुर्बों कि तल्खी, खयालों कि मिसरी

तजुर्बों कि तल्खी, खयालों कि मिसरी
ग़ज़ल इन से होकर ही काग़ज पर उतरी

दवात-ओ-कलम से अगर बात बनती
तो शाइर न मिलते कचहरी कचहरी?

ढली हुस्न के साथ पाबंदियाँ भी
कभी खंडरों पर भी होते हैं पहरी?

जरा अपने दामन में झाँको, तो जानो
न हो दाग ऐसी नहीं कोई चुनरी

सफर खत्म होने को है, पर न समझा
कहाँ वक़्त ठहरा, कहाँ उम्र गुजरी

'भँवर', दिन गुजरते चले जा रहे हैं
मगर ज़िंदगी है के ठहरी कि ठहरी    

बुधवार, अप्रैल 30, 2014

वह हँसी रात भी आखिर को वहम की निकली

वह हँसी रात भी आखिर को वहम की निकली
जो नज़र प्यार की समझा वह रहम की निकली

जब गलत राह पे चलने कि वजह को ढूँढा
बात उन मिटते हुए नक्षेकदम की निकली

घर जलें, लोग जलें, फिर से अमन खाक हुआ
आग देखी तो वही दीन-धरम की निकली

बुतपरस्तीमें कहीं रात गुज़र ना जाये
बेवजह बात ज़नानेमें हरम की निकली

चार दिन साथ रही, लौट गयी घर अपने
हूर कोई वह, 'भँवर', मुल्केअदम की निकली