कहाँ है वक़्त अब आराम का?
मुहब्बत काम सुबह-ओ-शाम का
तुम्हारे सामने किस काम का?
नशा फीका लगे इस जाम का
बुलाया अहल-ए-दिल को बज़्ममें
इरादा हो न कत्ल-ए-आम का
न जाने कब झुकी नज़रें उठें
न देखो रासता पैग़ाम का
लबों पर माशुका कब तक, 'भँवर'?
कभी तो नाम ले लो राम का
मुहब्बत काम सुबह-ओ-शाम का
तुम्हारे सामने किस काम का?
नशा फीका लगे इस जाम का
बुलाया अहल-ए-दिल को बज़्ममें
इरादा हो न कत्ल-ए-आम का
न जाने कब झुकी नज़रें उठें
न देखो रासता पैग़ाम का
लबों पर माशुका कब तक, 'भँवर'?
कभी तो नाम ले लो राम का
2 टिप्पणियां:
मिलिंद आपकी गजलें बहुत प्यारी हैं । लिखते हुए थोडा ख्याल करें जैसे लबों पर लिखें लबोंपर नही ।
धन्यवाद, आशाजी.
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