बस्तियोंके दीप क्यों बुझने लगे हैं ?
रोशनीसे लोग क्या डरने लगे हैं ?
और कुछ जमहूरियत देगी, न देगी
ख्व्वाब के बाज़ार तो सजने लगे हैं
मंज़िलें अपनी जगह कायम हैं लेकिन
रास्तें मुडते हुए दिखने लगे हैं
रहनुमाओं ने कहाँ लाया हैं हमको ?
लोग उलटे पाँव क्यों चलने लगे हैं ?
गीत गाते थे बगावत के कभी जो
जानिबेदौलत जरा बढने लगे हैं
इन्किलाबी गीत अब गाता नहीं मैं
शेर कुछ कुछ अब मेरे बिकने लगे हैं
देख ली है पेशकदमी शायरोंकी
फिर मरीजेइश्कसे लगने लगे हैं
ऐ 'भँवर', चारों तरफ मेलें लगे हैं
फ़िक्र क्या इन्सान गर घटने लगे हैं ?
3 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी गज़ल पेश क्करने का शुक्रिया.
इन्किलाबी गीत अब गाता नहीं मैं
शेर कुछ कुछ अब मेरे बिकने लगे हैं
देख ली है पेशकदमी शायरोंकी
फिर मरीजेइश्कसे लगने लगे हैं
bahut khoob.
apna alag mijaaz hai is ghazal ka shuru se ant tak...talkh... :) pasand aayi
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