हाल-ए-दिल जब जब ज़ुबाँ पर आ गया
बोज़ भारी नातवाँ पर आ गया
बस गया है, हो, न हो उसकी रज़ा
खुल्द से आदम जहाँपर आ गया
इश्क़ परदे को हुआ है हुस्न से
वक़्त कैसा पासबाँ पर आ गया
चाँदनीसी वह ज़हन पर छा गयी
नूर जैसे कहकशाँ पर आ गया
आँख गीली आतिश-ए-दिल कह गयी
लाख रोका था धुआँ, पर आ गया
ना कली है, ना बहारों का समाँ
क्यों, 'भँवर', तू गुलसिताँ पर आ गया ?
1 टिप्पणी:
सुन्दर रचना!
एक टिप्पणी भेजें