माना इनायतोंके काबिल तो हम नहीं
कैसी यह बेरुखी के ज़ुल्मोसितम नहीं ?
मुखडा हथेलियोंमें तुमने छुपा लिया
हाँ, ऊँगलियाँ हैं फैली, यह भी तो कम नहीं
मंज़िल मिले तो कैसे मुझ नामुराद को?
या रहगुजर नहीं या फिर हमकदम नहीं
आदत हुई है इतनी दुख-दर्द की मुझे
कैसे बिताऊँ उसको जो शामेग़म नहीं ?
ठहरो, कहार, थोडा सज लूँ, सँवार लूँ
दुनिया कहे जनाज़ा डोली से कम नहीं
2 टिप्पणियां:
ठहरो, कहार, थोडा सज लूँ, सँवार लूँ
दुनिया कहे जनाज़ा डोली से कम नहीं
शेर अच्छा लगा बहुत बहुत बधाई
बहुत अच्छी ग़ज़ल.
"उँगलियाँ हैं फैलीं" वाला शेर तो बहुत ही अच्छा है.
(कमेंट्स से वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें..कमेन्ट देने में मुश्किल होती है.)
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