हर हर्फ़ के वज़न पर होगा बवाल कब तक
अल्फ़ाज़-ए-शायरी को तरसे खयाल कब तक
ग़मसे निजात माँगें ऐसे नहीं सुखनवर
जो रूह-ए-शायरी है उसका मलाल कब तक
इक रूह ही नहीं है पहचान आदमी की
बहलाये जिस्म-ओ-जाँ को ख्व्वाब-ए-विसाल कब तक
मिटने लगी हैं आँखें, फिरभी है बंद मुठ्ठी
दिलसे लगा रखोगे यह जान-ओ-माल कब तक
अब और इम्तिहाँमें बैठा न जाये मुझसे
यह ज़िंदगी करेगी तेढे सवाल कब तक
अल्फ़ाज़-ए-शायरी को तरसे खयाल कब तक
ग़मसे निजात माँगें ऐसे नहीं सुखनवर
जो रूह-ए-शायरी है उसका मलाल कब तक
इक रूह ही नहीं है पहचान आदमी की
बहलाये जिस्म-ओ-जाँ को ख्व्वाब-ए-विसाल कब तक
मिटने लगी हैं आँखें, फिरभी है बंद मुठ्ठी
दिलसे लगा रखोगे यह जान-ओ-माल कब तक
अब और इम्तिहाँमें बैठा न जाये मुझसे
यह ज़िंदगी करेगी तेढे सवाल कब तक
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें