राहतेदर्देदिलेनाकाम का मैं क्या करूँ?
तुम नहीं जब साथ तो आराम का मैं क्या करूँ?
पोंछ डाला ज़हन से अब हर निशाँ तेरा, सनम
ले नहीं सकता जिसे उस नाम का मैं क्या करूँ?
ज़ख़्म तो भर जाएँगे, दो-चार दिन की बात है
बेवफाई के तेरे इल्ज़ाम का मैं क्या करूँ?
क्या शबेफुरकत के बारे में अभी से सोचना?
बीच की चट्टान सी इस शाम का मैं क्या करूँ?
अपने आशिक़ को जलाने की हदें भी सोच ले
ख़ाक होने पर मिले पैग़ाम का मैं क्या करूँ?
हर सुबह तर्केगली-ए-हुस्न करता हूँ मगर
हाय, अपनी तबियतेगुलफाम का मैं क्या करूँ?
छोड़ भी सकता नहीं, तोड़े नहीं यह टूटता
ज़हर ही दे दे, के खाली जाम का मैं क्या करूँ?
उसके दर से उठ न पाया हूँ अज़ल से जब ’भँवर’
सोचता रहता हूँ, चारों धाम का मैं क्या करूँ?
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