आरज़ू उनकी गली की क्या करे कोई?
क्या सज़ा दे खुदको, खुद ही क्या मरे कोई?
ताअरूर्फ़ है इक कदम, पहचान है मंज़िल
दायरेदीदार से देखे परे कोई
चाहे जितने हो हँसीं, यह भूल मत जाना
पाँव आखिर पाँव हैं, कब तक धरे कोई
हर सज़ा की कुछ न कुछ मीयाद होती है
एक गलती के लिये कब तक भरे कोई?
एक दिन गंगा नहाना है, ’भँवर’, सबको
पाप धुलही जाएगा, क्यों ना करे कोई?
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