मंगलवार, जून 16, 2009

गोतें लगा रहा हूँ सागर की मौज में

गोतें लगा रहा हूँ सागर की मौज में
ना सीपमें है मोती, मस्ती न जाम में


बिन लडखडाए चलना आसाँ नहीं रहा
क्यों होश माँगते हो पीने के दौर में ?


दुखमें नशा रहेगा शायद शराबसा
डूबे रहें वगरना क्यों लोग सोग में ?


अब क्या तुम्हें बताऊँ जख़्मों की दास्ताँ
दुष्मन करीब आए रिश्तों की ओट में


ऐसा नहीं के मुझको सागरसे प्यार है
होता नहीं सभीके साहिल नसीब में


ऐ दोस्त, मैकदे की यह राह तो नहीं ?
देखी न भीड ऐसी मस्जिद में, दैर में


इस मैकदेसे आखिर ना प्यास बुझ सकी
पीरी हुई, चला हूँ ; आया शबाबमें


आये, गये सुखनवर अच्छे, बुरे कईं
किसने सुनी किसीकी दुनिया के शोरमें ?


बाज़ार में मिलेगी हर शै, ’मिलिंद’ पर
तू तो निकल पडा है इन्साँ की खोज में...



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