होती नही किसीके वह इख़्तियारमें
आकर ख़िजाँ रहेगी बागे-बहारमें
मैं अंजुमन अकेला, तनहा हजारमें
इतना कभी न खुश था जितना मज़ारमें
अरसा हुआ किसीकी आहट सुने हुए
पाज़ेब क्या बजेंगे उजडे दयारमें ?
ना शाम-ए-ग़म कटी, ना रातें फ़िराक़की
इक उम्र कट गई है सब्रोकरारमें
सहरा-ए-ज़िंदगीमें चलती हैं आँधियाँ
किसके निशाँ रहें हैं बाकी गुबारमें ?
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