मेरी पिछली गज़ल, "आँखोंसे कुछ और बरसो, आँसुओं", पढकर मेरे एक ज्येष्ठ शायर मित्र, श्री.संदीप गुप्तेजीने सुझाया की उसके आखरी शेर की पहली पंक्ति, "दिल अगर टूटे तो रोना चाहिये" को ज़मीन के तौर पर इस्तमाल करके मैं नयी गज़ल लिखूँ. उनकी सूचना के अनुसार यह कुछ पंक्तियाँ लिखी है :
दिल अगर टूटे तो रोना चाहिये
कुछ सबूत-ए-ग़म भी होना चाहिये
चाहकर भी चाह पूरी ना हुई
अब वही चाहेंगे जो ना चाहिये
हसरत-ए-नाकाम के चर्चे न कर
बोझ अपना आप ढोना चाहिये
दिल अगर टूटे किसीका, क्या उन्हें ?
खेलने को इक खिलोना चाजिये
तल्खि-ए-हालात से मजबूर हूँ
वरना लब पर शहद होना चाहिये
यूँ नहीं दिल को सुकूँ मिलता यहाँ
आशना-ए-मर्ग होना चाहिये
हैं ज़मीनोआसमाँ सबके मगर
हर किसीको अपना कोना चाहिये
दिल अगर टूटे तो रोना चाहिये
कुछ सबूत-ए-ग़म भी होना चाहिये
चाहकर भी चाह पूरी ना हुई
अब वही चाहेंगे जो ना चाहिये
हसरत-ए-नाकाम के चर्चे न कर
बोझ अपना आप ढोना चाहिये
दिल अगर टूटे किसीका, क्या उन्हें ?
खेलने को इक खिलोना चाजिये
तल्खि-ए-हालात से मजबूर हूँ
वरना लब पर शहद होना चाहिये
यूँ नहीं दिल को सुकूँ मिलता यहाँ
आशना-ए-मर्ग होना चाहिये
हैं ज़मीनोआसमाँ सबके मगर
हर किसीको अपना कोना चाहिये
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें