मंगलवार, जुलाई 29, 2014

तजुर्बों कि तल्खी, खयालों कि मिसरी

तजुर्बों कि तल्खी, खयालों कि मिसरी
ग़ज़ल इन से होकर ही काग़ज पर उतरी

दवात-ओ-कलम से अगर बात बनती
तो शाइर न मिलते कचहरी कचहरी?

ढली हुस्न के साथ पाबंदियाँ भी
कभी खंडरों पर भी होते हैं पहरी?

जरा अपने दामन में झाँको, तो जानो
न हो दाग ऐसी नहीं कोई चुनरी

सफर खत्म होने को है, पर न समझा
कहाँ वक़्त ठहरा, कहाँ उम्र गुजरी

'भँवर', दिन गुजरते चले जा रहे हैं
मगर ज़िंदगी है के ठहरी कि ठहरी