रविवार, दिसंबर 20, 2015

रुक रुक के चल रहा है कारवान-ए-ज़िंदगी

रुक रुक के चल रहा है कारवान-ए-ज़िंदगी
शायद यही है दौर-ए-इम्तहान-ए-ज़िंदगी

रुसवा कदम कदम मुझे किया है जीते जी
मरघट चली न आये देने ताने ज़िंदगी

दुष्मन खडे दराँती हाथ में लिये हुए
डर है कहीं लगे न लहलहाने ज़िंदगी

कितना कहा के हूँ नहीं शरीक-ए-दौड मैं
कोडे लगाये जा रही, न माने ज़िंदगी

फ़रियाद भी वही करें, सजा भी दें वही
कितने अजीब हैं यह मेंबरान-ए-ज़िंदगी

क्यों रहबरों कि खोज में फिरे तू दर-बदर?
सबको लगाये एक दिन ठिकाने ज़िंदगी

मैं भी न बेरुखी से पेश आऊँ तो कहो
आग़ोश में तो आये मुँह छुपाने ज़िंदगी

इक उम्र इंतज़ार, एक पल विसाल का
इक मौत ही है अस्ल कद्रदान-ए-ज़िंदगी

आँखें न पढ सकेंगी, काम दिल से लीजिये
अशआर में छुपी है दास्तान-ए-ज़िंदगी

रविवार, जून 21, 2015

शराब ना शबाब है, करें बसर तो किस तरह

शराब ना शबाब है, करें बसर तो किस तरह
कबाड में बिके सुखन, करें गुजर तो किस तरह

न कान हैं खुले यहाँ, न द्वार मन के हैं खुले
यहाँ किसी की शायरी करे असर तो किस तरह

वह रेत में उठा के नक्षेपा कभी के गुम हुए
कटे तवील ज़िंदगी कि रहगुजर तो किस तरह

अगर घुली हो तलखियाँ शराब में, शबाब में
हरेक लफ्ज़ में भरा न हो ज़हर तो किस तरह

न आँख में नमी ज़रा, न ओस दिल में है 'भँवर'
के बीज इस ज़मीन में बने शजर तो किस तरह

शनिवार, फ़रवरी 21, 2015

रिहाई चाहता हूँ, अब कफस में जी नहीं लगता

रिहाई चाहता हूँ, अब कफस में जी नहीं लगता
बहुत ढूँढा, मगर अपना यहाँ कोई नहीं लगता

बुझा जाता हूँ खुद, अब और आँधी की ज़रूरत क्या?
उजाला चश्मेतर का क्या तुम्हें फानी नहीं लगता?

यह मुफलिस की है बीमारी, इसे मुफलिस ही समझेगा
यहाँ से चल, दवाखाना यह खैराती नहीं लगता

यह क्यों पेड़ों पर झूलों की जगह लाशें लटकती हैं
उसे क्या खाक समझाएँ, वह देहाती नहीं लगता

सनम की मरमरी बाहें, तराशासा बदन उसका
यह पत्थर वह है जिसमें दूर तक पानी नहीं लगता

टटोलो दिल को पहले, नाक-नकशा बाद में देखो
अजी, सूरत से खुद शैतान भी पापी नहीं लगता

किताबों में पढा था, ज़िंदगी यह खूबसूरत है
किताबों का ,'भँवर', हर लफ्ज़ बेमानी नहीं लगता?