रविवार, दिसंबर 25, 2011

दिल टूटने का, यारों, क्या ग़म हुआ न होगा?

दिल टूटने का, यारों, क्या ग़म हुआ न होगा?
निकला अगर जनाज़ा, मातम हुआ न होगा?

हम से बिछड चले तब आयी बहार उनपर        
आँसू यूँ ही हमारा शबनम हुआ न होगा















तुमसे गिला नहीं है, पत्थर उठानेवालों
तुम पर कभी जुनूँ का आलम हुआ न होगा

ज़ख़्म-ए-जिगर हमारा नासूर बन गया है
इस बार जाम से भी मरहम हुआ न होगा

कैसे पडे न सूखा गंगा नदी का पानी?
दुनिया के पाप धोते क्या कम हुआ न होगा?

शुक्रवार, दिसंबर 23, 2011

माँग कर लायी नहीं जाती

माँग कर लायी नहीं जाती
सादगी सीखी नहीं जाती

जो समझते हैं, समझते हैं
बात समझायी नहीं जाती

उस बहाने तो चले आते
काश, बीमारी नहीं जाती

उसने दिल पैरों तले रोंधा
फिर भी पाबोसी नहीं जाती

चोट खाने फिर चला आया
क्या करूँ, यारी नहीं जाती

दो घडी क्या मिल गयी आँखें
अब ये रुसवाई नहीं जाती

दिल ये कहता है यकीं कर ले
बदगुमानी भी नहीं जाती

अंगबीं क्या चीज है, मै भी
लबतलब से पी नहीं जाती

आदमी के दफ़्न होने तक
राहपैमाई नहीं जाती


१) पाबोसी: पायाचे चुंबन घेणे, पूजणे
२) बदगुमानी: गैरसमज
३) अंगबीं: मध
४) मै: मद्य
५) लब: ओठ       तलब: याचना, मागणी
६) राहपैमाई: यात्रा, सफर

शनिवार, दिसंबर 10, 2011

शायर-ए-नाकाम हैं, पर है तबीयत शायराना

एक हज़लनुमा रचना:

शायर-ए-नाकाम हैं, पर है तबीयत शायराना
माँगते फिरते हैं हम सबसे नसीहत शायराना

हमवज़न अल्फ़ाज़ का हमको नहीं है इल्म बिल्कुल
और बेहरों से हमारी है बगावत शायराना

हाँ, कवाफ़ी लडखडाये; हाँ, रदाफ़ी निभ न पायीं
क्या हुआ हमने अगर ली कुछ रियायत शायराना?

शेर के ऐवज में कर ली हो न तुकबंदी ज़रासी
पर सुखनवर के इरादे थे निहायत शायराना

दोस्त हम को देखकर आँखें चुराते हैं, चुराएँ
कब तलक टालेंगे? हम भी है कयामत शायराना

देखकर तुमको, 'भँवर', उस्तादजी कहने लगे है
"फिर चली आयी हमारे घर मुसीबत शायराना"

गुरुवार, दिसंबर 01, 2011

हमको न देखो यूँ निगाह-ए-नाज़ से

हमको न देखो यूँ निगाह-ए-नाज़ से
उम्मीद सुर की क्या शिकस्ता साज़ से?

दिल संगमरमर का नहीं तो क्या हुआ?
हैं दफ़्न यादें कम किसी मुमताज़ से?

सैयाद जब से हुस्न में आया नज़र
डरते हैं हम जज़बात के परवाज़ से

शायद हमारी याद आयी हो उन्हें
दुष्मन हमारें लग रहें नासाज़ से

बनकर फ़साना बात फैली है, 'भँवर'
उम्मीद ऐसी तो न थी हमराज़ से