रविवार, जनवरी 31, 2010

बस्तियोंके दीप क्यों बुझने लगे हैं ?

बस्तियोंके दीप क्यों बुझने लगे हैं ?

रोशनीसे लोग क्या डरने लगे हैं ?



और कुछ जमहूरियत देगी, न देगी


ख्व्वाब के बाज़ार तो सजने लगे हैं



मंज़िलें अपनी जगह कायम हैं लेकिन


रास्तें मुडते हुए दिखने लगे हैं



रहनुमाओं ने कहाँ लाया हैं हमको ?


लोग उलटे पाँव क्यों चलने लगे हैं ?



गीत गाते थे बगावत के कभी जो


जानिबेदौलत जरा बढने लगे हैं



इन्किलाबी गीत अब गाता नहीं मैं


शेर कुछ कुछ अब मेरे बिकने लगे हैं



देख ली है पेशकदमी शायरोंकी


फिर मरीजेइश्कसे लगने लगे हैं



ऐ 'भँवर', चारों तरफ मेलें लगे हैं


फ़िक्र क्या इन्सान गर घटने लगे हैं ?

मंगलवार, जनवरी 26, 2010

खबर थी कि अपनी अलग राह चुनते

खबर थी कि अपनी अलग राह चुनते

कदम दो कदम तो मगर साथ चलते


नज़र ना चुराओ, तुम्हारी निगाहें

बदल जातीं है इक पलक के झपकते



अभी दाग दामनपर आया नहीं है

चुनरिया रही सर सरकते सरकते



बडी सख्त है जान हम पापियोंकी

गुजरती है सदियाँ निकलते निकलते



तुम्हारे महल हो; हमारी हैं गलियाँ

मिलोगे न कैसे यहाँ से गुजरते ?



कभी तो नज़र आइनेसे हटाओ

जवानी न बीते निखरते, सँवरते



जहाँ सिर्फ़ पतझड की आहट है बाकी

सुना था कभी पंछियों को चहकते



सभीने 'भँवर'से किया है किनारा

हमीं रह गये साहिलों को तरसते

मंगलवार, जनवरी 19, 2010

राह चलते हमकदम मिलता नहीं


 


राह चलते हमकदम मिलता नहीं 
चाहनेसे साज़ेदिल छिडता नहीं


राह जाती हो न चिडियाघर कहीं
दूर तक इक आदमी दिखता नहीं


मरघटोंसे है गया-गुज़रा शहर
धूम क्या, मातम यहाँ मचता नहीं


चश्मनम तो सूख जाती है मगर
क्या बला है खूनेदिल, थमता नहीं


एक मुद्दतसे नहीं कोई मिला
और खुद से अब तो जी भरता नहीं


खुदबखुद इक आह दिल से आ गयी
जानकर तो शेर मैं कहता नहीं


रोज़ हालेदिल नहीं कहतें, 'भँवर'
दश्तेसहरामें सुखन खिलता नहीं

यात्रा

मिट चुका हैं गाँव निकला था जिसे मैं छोडकर

और बसना था जहाँ, आबाद वह ना हो सका



दूर तक आगे दिखाई दे रही है बस डगर

रोकभी सकता नहीं मुडती हुई अपनी नज़र

लौटभी सकता नहीं अपनी प्रतिज्ञा तोडकर                         ||१||



दुख नहीं कि राहमें काटें अधिक हैं, फूल कम

दुख नही कि राहमें कोई नहीं है हमकदम

साथमें यादें सुहानी जब चली हैं झूमकर                             ||२||



पेड हैं निष्पर्ण सारें, छाँव देने से रहें

सूर्य तो बरसा किया, बादल बरसने से रहें

चाँद मेरा बादलोंमें छुप गया मुख मोडकर                           ||३||



प्यास का क्या, जन्मक्षणसे साथ है मृत्यू तलक

गात्र को आजन्म सहनी है क्षुधा की यह दहक

चित्त विचलित कर मुझे कहीं ले न जाए ओढकर                   ||४|| 

मंगलवार, जनवरी 12, 2010

जवाँ आशिकोंके दिलोंसा शहर है

जवाँ आशिकोंके दिलोंसा नगर है

सुकूँ है कहीं तो कहीं पर गदर है



कहाँ जा रहा हूँ, कहाँ तक सफर है ?


कहीं पर है मंज़िल, कहीं रहगुजर है



यहाँ आ गया जो, न फिर लौट पाया


बडा बेरहम यह तिलिस्मी नगर है



किसी रोज साकी करेगा इनायत


अभी जाम खाली हमारी नज़र है



जिये जा रहें सब, पिये जा रहें सब


नशा मुफ्लिसीका चढा सर-ब-सर है



न जन्नत मिली ना मिली हूर कोई


करूँ क्या, अभी वाइज़ोंपर गुजर है



न झुककर कभी पाँव छूना हमारें


हमारी दुआ तो बडी बेअसर है



अभी मस्त है वह जुए की फ़तहमें


कुरुक्षेत्र की ओर अपनी नज़र है



लगे ना कभी लत शराबेसुखन की


नशा मैकशी का पहर, दो पहर है



खयालात उमदा, न कोई हुनर है


बडे बेतुके शेर कहता 'भँवर' है