शनिवार, दिसंबर 18, 2010

हमें काफिर कहे वह जो खुदा हो

हमें काफिर कहे वह जो खुदा हो
चलो, फिर आपसेही इब्तिदा हो

कहें कैसे, पिलाते हो नज़रसे ?
अगर बदनाम हो तो मैकदा हो

गुनाहे-इश्क़ है, काज़ी बुलाओ
उमरभर की सज़ा बाकायदा हो

हमें तो सर झुकाने से है मतलब
दर-ए-जाना, हरम, या बुतकदा हो

पुकारा आपने, कैसे यकीं हो ?
किसी दीवार से लौटी सदा हो...

न दौलत माँगते हैं हम, न जन्नत
हमारा हक़ बने उतना अदा हो

सहा जाता नहीं मिलना, बिछडना
हमेशा के लिए अब अलविदा हो

गुलों, वाक़िफ़ करो लुत्फ़-ए-शहद से
'भँवर'को इश्क़ से कुछ फायदा हो

रविवार, नवंबर 28, 2010

अभी कुछ और है लड़ना ज़मानेसे

अभी कुछ और है लड़ना ज़मानेसे 

कभी का रूठता वरना ज़मानेसे 



नहीं मंजूर गर कटना ज़मानेसे 


तो है लाज़िम सुलह करना ज़मानेसे 



लड़ाई एकतर्फा, जीत मुष्किल है 


अभी इन्सान है अदना ज़मानेसे 



ज़माना था कहाँ, पहुँचा कहाँ देखो 


रहे मुफ्लिस वहीं, कहना ज़मानेसे 



कई भूखें, कई नंगें, कई बेघर 


अभी कितनों को हैं हटना ज़मानेसे 



छुपा रख्खे हैं हमने ख्वाब सीनेमें 


सहा जाता नहीं सपना ज़मानेसे 



छुपाओ लाख मीना और साग़र को 


छुपे ना, हाय, लड़खड़ना ज़मानेसे 



हमीमें रह गई होगी कमी कोई 


शिकायत क्या युँहीं करना ज़मानेसे 



’भँवर’ने नाव को कुछ इस तरह मोडा 


अलग होकर पड़ा बहना ज़मानेसे

गुरुवार, नवंबर 18, 2010

हस्ती है हमारी किसी हुबाब की तरह

हस्ती है हमारी किसी हुबाब की तरह

उसपर यह दिल्लगी तेरी अज़ाब की तरह



लगते हो हमें आप माहताब की तरह


जो रात ढले चल दिया जनाब की तरह



गर ज़ख़्म किये हुस्नने; गिना न कीजिये


होता है कभी प्यार भी हिसाब की तरह?



नारा-ए-मुहब्बत लगा लगा के थक गये


है प्यार भी दुशवार इनकलाब की तरह



इक उम्र हुई तुम मिले, मगर खुमार है


चढती है मुलाकात भी शराब की तरह



मत पूछ हमें मैकदा नसीब क्यों हुआ


वह प्यास बढाते रहे सराब की तरह 



परदा नहीं है फिरभी है पर्दानशीं 'भँवर'


ओढे हुए है वह हँसी नकाब की तरह

शनिवार, नवंबर 13, 2010

शहर है यह या भरा बाज़ार है

शहर है यह या भरा बाज़ार है

बिक रहा है हर कोई, लाचार है



पत्थरोंके बीज बोए वक़्तने


अब जहाँ जाए नज़र, दीवार है



काम यह वैदो-हकीमों का नहीं


इस वतन की रूह तक बीमार है



ढाँपकर मुँह कर रहे ऐयाशियाँ


यूँ कहो के लोग इज़्ज़तदार है



हमकदम कैसे बने कोई तेरा


ज़िंदगी, कैसी तेरी रफ्तार है

सोमवार, अक्तूबर 04, 2010

तेरी बातें, तेरी यादें, हरदम हैं अब साथ मेरे

तेरी बातें, तेरी यादें, हरदम हैं अब साथ मेरे

बिछडे गर तुम, क्या होगा, जब मिलकर यह हालात मेरे



तेरीही फरियादें, ज़ालिम, तेराही कानून अगर

हाज़िर है गर्दन आशिक़की, देरी क्यों, जल्लाद मेरे



कितनी देरीसे आये हो कब्रिस्ताँ ले जाने को

यारों, कब के दफ़्न हुए हैं एहसासो-जज़्बात मेरे



वाइज़ने काफ़िर कह डाला, पंडितने भी ठुकराया

लगता है इन्साँ बननेके अच्छे हैं आसार मेरे


अपने रूठे, साथी छूटे, दुनिया मुँह मोडे मुझसे

तनहाईमें जी बहलाने काफ़ी हैं नग़मात मेरे

शनिवार, अक्तूबर 02, 2010

इक हँसी, फानी लहर है ज़िंदगी

इक हँसी, फानी लहर है ज़िंदगी
हुस्न की धानी चुनर है ज़िंदगी

नब्ज चलनाही अगर है ज़िंदगी
ज़िंदगीसे बेखबर है ज़िंदगी

दिन, महिने, साल जो गिनते रहें
पूछते हैं अब किधर है ज़िंदगी

क्या पता ले जाएगी यह किस तरफ
राह-भूलीसी डगर है ज़िंदगी

हम वहीं है, हम जहाँ पैदा हुए
कौन कहता है सफर है ज़िंदगी

और तोहफा पेश-ए-खिदमत क्या करूँ
मौत, ले तुझको नज़र है ज़िंदगी

बेचना पडता है खुदको उम्रभर
यूँ लगे, नीलामघर है ज़िंदगी

मौतसे दो-चार पल है जूझना
थक गया हूँ, उम्रभर है ज़िंदगी

जल्दही दीदार होगा यार का
बस, अभी इक-दो पहर है ज़िंदगी

क्या जवानी और क्या पीरी, 'भँवर'
सिर्फ़ ठोकर दर-बदर है ज़िंदगी

शनिवार, सितंबर 25, 2010

अगर दे दो इजाज़त, आपकी ज़ुल्फोंसे खेलेंगे

अगर दे दो इजाज़त, आपकी ज़ुल्फोंसे खेलेंगे

कभी जूडेसे खेलेंगे, कभी पेचोंसे खेलेंगे



किसी सूरत हमारा नाम आए आप के लब पर

कमस्कम इस तरह हम आप के होटोंसे खेलेंगे



गवाही दे रहा है चाक दामन बेकरारीका

जिन्हे है शौक फूलोंका वहीं काँटोंसे खेलेंगे



सभी किस्मत की बातें हैं, अगर हारे, न रोयेंगे

मुकद्दरने जो बाटें हैं, उन्ही पत्तोंसे खेलेंगे



सुखनवर कह गये हैं इश्क़ है इक आग का दरिया

अजी क्या डूबना, हम उम्रभर मौजोंसे खेलेंगे

शुक्रवार, सितंबर 24, 2010

फर्ज़

कितनी आसानीसे जाँ से दिल जुदा किया

आज हमने हँसके बेटी को बिदा किया



जब तलक वह थी यहाँ, घर दैरसा लगा

वह गई, पाकीज़गीने अल्विदा किया



देवता की देन थी, फिरभी न रख सके

फर्ज़ हमने बाप होने का अदा किया



ऐ नमी, तू आँखमें बेवक़्त आ गई

अपने घर वह जा रही थी, ग़मज़दा किया



जा; 'भँवर' से दूर इक साहिल तुझे मिले

अब किसी अपने को तूने नाखुदा किया...


गुरुवार, सितंबर 09, 2010

माना इनायतोंके काबिल तो हम नहीं

माना इनायतोंके काबिल तो हम नहीं

कैसी यह बेरुखी के ज़ुल्मोसितम नहीं ?



मुखडा हथेलियोंमें तुमने छुपा लिया

हाँ, ऊँगलियाँ हैं फैली, यह भी तो कम नहीं



मंज़िल मिले तो कैसे मुझ नामुराद को?

या रहगुजर नहीं या फिर हमकदम नहीं



आदत हुई है इतनी दुख-दर्द की मुझे

कैसे बिताऊँ उसको जो शामेग़म नहीं ?



ठहरो, कहार, थोडा सज लूँ, सँवार लूँ

दुनिया कहे जनाज़ा डोली से कम नहीं

शनिवार, जुलाई 31, 2010

हम मैकदे से हर दम प्यासे निकल गये

हम मैकदे से हर दम प्यासे निकल गये

साकी की लाज रखने झूमे, फिसल गये



उजली न एक पल भी दिल की उदासियाँ


रुखसार के उजाले नाकाम ढल गये



अब क्या बताएँ उनको क्यों आँख नम नहीं


थोडे छुपाएँ आँसू , थोडे निगल गये



नज़रें झुकी हुई हैं, तेवर भी नर्म हैं


आँखें दिखानेवाले कैसे बदल गये



ठंडी भरो न आहें, साँसों में आँच हो


कितने ही बर्फ के बुत छूते पिघल गये



आये तो थे मिटाने वह रौनक-ए-चमन


कुछ फूल खिल रहें थे, सो भी मसल गये



एहसानमंद हैं हम संग-ओ-रकीब के


घायल हुए तभी तो कहकर गज़ल गये...

रविवार, जुलाई 18, 2010

हाल-ए-दिल जब जब ज़ुबाँ पर आ गया

हाल-ए-दिल जब जब ज़ुबाँ पर आ गया

बोज़ भारी नातवाँ पर आ गया


बस गया है, हो, न हो उसकी रज़ा

खुल्द से आदम जहाँपर आ गया


इश्क़ परदे को हुआ है हुस्न से

वक़्त कैसा पासबाँ पर आ गया



चाँदनीसी वह ज़हन पर छा गयी

नूर जैसे कहकशाँ पर आ गया



आँख गीली आतिश-ए-दिल कह गयी

लाख रोका था धुआँ, पर आ गया



ना कली है, ना बहारों का समाँ

क्यों, 'भँवर', तू गुलसिताँ पर आ गया ?

मंगलवार, जुलाई 13, 2010

उजाले आप की आँखोंके कुछ मिलते निशानीमें

उजाले आप की आँखोंके गर मिलते निशानीमें

जला लेते दिये यादों के हम ग़म की सियाहीमें



कभी "उफ" तक, सनम, करते नहीं हम बेकरारीमें

रियायत आप गर करते कभी वादाखिलाफ़ीमें



अभी तक डर रहा हूँ, नींद फिर आए न आँखोंमें

किसीसे आशना हूँ, ख्वाब देखा था जवानीमें



कहा जब संग उनको, पत्थरोंने भी शिकायत की

"कभी पत्थर हुए शामिल किसी की जगहसाईमें ?"



 ग़मे-हस्ती ग़मे-नाकाम हसरत से जुदा क्या है ?

तमन्नाएँ सभी किसकी हुई पूरी खुदाईमें ?



ज़मानेभर की रुसवाई चली आई है मिलनेको

'भँवर', रह जाए ना कोई कसर मेहमाँनवाज़ीमें

शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

प्यारी है हमको किस लिए फुरकत न पूछो

प्यारी है हमको किस लिए फुरकत न पूछो 

बादेजुदाई वस्ल की लज़्ज़त न पूछो 



पत्थर पिघलनेमें गुज़र जाती हैं सदियाँ 


है बुतपरस्ती किस कदर आफत न पूछो 



कुछ हुस्न उनका, कुछ जवानी का तकाज़ा 


कैसे लगी दीदार की यह लत न पूछो 



आशिक़मिजाज़ीने किया है नाम रोशन 


कैसी शरीफोंसे मिली इज़्ज़त न पूछो 



ठुमरी, गज़ल, मुजरें हज़ारों सुन चुके हैं


बेसाज़ लोरी की मगर रंगत न पूछो

सोमवार, जून 21, 2010

नसीहत ख़िज्र की सुनती है दुनिया

नसीहत ख़िज्र की सुनती है दुनिया

मगर कुछ कान से बहरी है दुनिया



सभी ख्वाबों-खयालोंमें मगन है


न जाने किस तरह चलती है दुनिया



सुना करते थे बदलेगा ज़माना


(किताबोंमें यही लिखती है दुनिया)



गले से ज़िंदगी को मत लगाना


तुम्हें अय्याश कह सकती है दुनिया



इन्ही से तो पनपती है बगावत


सनम, ख्वाबोंसे ही डरती है दुनिया



हमें क्यों फिक्ऱ हो उस बेवफाकी ?


सँभालेगा वही जिसकी है दुनिया



'भँवर' तेरे लिए ही ठीक होगी


शरीफों पर कहाँ जचती है दुनिया ?

सोमवार, मई 17, 2010

ज़िंदगी है, जंग, लढना सीख लो

ज़िंदगी है जंग, लढना सीख लो

जी सकोगे गर्चे मरना सीख लो



ना रुका है, ना रुकेगा कारवाँ

साथ दो या धूल बनना सीख लो



बेटियों जैसी चली वह जाएँगी

हँसके साँसोंसे बिछडना सीख लो



लोग मिलकर फिर जुदा हो जाएँगे

प्यार तनहाई से करना सीख लो



मंज़िलें तो उम्रभर तरसाएँगी

राह तुम अपनी बदलना सीख लो



वाईज़ों का बीचमें क्या काम है?

खुद खुदा से बात करना सीख लो

शनिवार, मई 08, 2010

होंट चाहें और साग़र हैं मिलें

होंट चाहें और साग़र हैं मिले

रूह प्यासी और पैकर हैं मिले



ना उछल, ऐ मौज, चंदा देखकर

आसमाँसे कब समंदर हैं मिले



मिन्नतें की, गिडगिडाए, तब मिले

खूब हमको आज़माकर हैं मिले



इश्कमें तोहफ़ें मयस्सर हो गये

नाज़, नखरें, और तेवर हैं मिले




आजकल खिलने से भी डरता है दिल

गुलशनोंमें भी बवंडर हैं मिले



फूल को पहचानना दुश्वार है

हर कदम, हर मोड पत्थर हैं मिले



धूलको फिर भी गुमाँ होता नहीं

धूलमें लाखों सिकंदर हैं मिले



दर्द के गहरे 'भँवर' में डूबकर

अब सुखन के चंद गौहर हैं मिले

शुक्रवार, अप्रैल 23, 2010

किसी दिन कहीं मेल होगा यकीनन

किसी दिन कहीं मेल होगा यकीनन

मुहब्बत नहीं सिर्फ़ धोखा यकीनन



नयी सोच दीवारसे क्या रुकेगी


मिलेगा हवा को झरोखा यकीनन



सुकून-ए-जिगर अब तलक मिल न पाया


अभी चेहरे पर है गोषा यकीनन



बहारोंमें हम सर्द आहों के मारे


किसी संगदिल का है बोसा यकीनन



खुली नींद क्यों शेषशायी तुम्हारी ?


"कन्हैया!", पुकारे यशोदा यकीनन



रदाफ़ी पुरानी, तखय्युल पुराने


है अंदाज़ लेकिन अनोखा यकीनन



लब-ए-गुल हो शीरीं, खतरनाक भी हैं


'भँवर' को शहदमें डुबोया यकीनन

बुधवार, अप्रैल 07, 2010

सुकून-ए-जिगर को शरारा न कर ले

सुकून-ए-जिगर को शरारा न कर ले

कहीं दिल मुहब्बत गवारा न कर ले


यह माना हिजाबों में रहते हो लेकिन

हरममें ही कोई नज़ारा न कर ले


न यूँ छेडकर आग दिलमें लगाओ

यह आँधी कहीं रुख तुम्हारा न कर ले


कई साल के बाद रूठे हैं फिरसे

कहीं इश्क़ हमसे दुबारा न कर ले


किसी दिन तो, बेशक, ख़तम खेल होगा

शब-ए-वस्ल क्यों ख़त्म सारा न कर ले


'भँवर', ख़्वाब-ए-मंज़िल जुबाँपर न लाना

कहीं राह मुडकर किनारा न कर ले

मंगलवार, अप्रैल 06, 2010

उनको देखा, दिल मचलकर रह गया

उनको देखा, दिल मचलकर रह गया

चोट खाई, बन के पत्थर रह गया



मिट गये कितने ही ज़ख्मों के निशाँ

ज़ख्म दिल का बनकर नश्तर रह गया



क्या मिला है मुझको आँखें खोलकर ?

हर नज़ारा ख्वाब बनकर रह गया



चार आँसू क्या बहाए हुस्नने

हौसला-ए-संग ढहकर रह गया



ऐ ग़मों, अब अश्क़ ना माँगा करो

बनकर सहरा वह समंदर रह गया



देख, शायद चाँदपर इन्साँ मिले

ढूँढने याँ कौनसा घर रह गया ?



ज़िंदगी गहरी नदी सी बीचमें

पार जिसके मेरा नैहर रह गया

रविवार, मार्च 28, 2010

इस कदर नाकामियोंसे प्यार था

इस कदर नाकामियोंसे प्यार था 

ज़िंदगी की दौडसे इन्क़ार था 


 
है पुराना बाढ आने का चलन 


मेरी गलती है की मैं मँज़धार था 



भूक़ से बेहाल होकर मर गया 


लोग कहते हैं कोई खुद्दार था 



फूल तू, गुलशन गली तेरी मगर 


लौटकर देखा, जिगरमें खार था 



ग़म न कर जो तेरे ग़ममें मर गया 


खुदकुशी थी, तू तो बस औज़ार था 



करवटें बदली हैं तेरी याद में 


ख़्व्वाबमें भी तेराही रुखसार था 



यह न समझो बस ज़रासी थी झलक 


पद्मिनी के वासते जोहार था



लाख टोका, बेशरम फिर आ गया 


क्या करे, यमदूत भी लाचार था

शुक्रवार, मार्च 19, 2010

इसे काट देना ही बेहतर रहेगा

इसे काट देना ही बेहतर रहेगा

यह रिश्तों का धागा उलझकर रहेगा



जवाँ हो गयी है मेरे दिल कि कष्टी


ग़मों का कहीं तो समंदर रहेगा



चली बदहवा, नींद शोलों की टूटी


घरोंदा हमारा झुलसकर रहेगा



सितारें जहाँ टूटकर गिर चुके हैं


उन्हीमें कहीं अपना रहबर रहेगा



बिगडता है अक्सर ज़रा बनते बनते


यह शायद हमारा मुकद्दर रहेगा



कभी जाम छलके, कभी अश्क छलके


जिसे मस्त जीना है, पीकर रहेगा



न सीनेमें तूफाँ दबाओ, 'भँवर', तुम


वह जीतेजी दिलको डुबोकर रहेगा

रविवार, मार्च 14, 2010

मरकर सही, दिल को ज़रा आराम आया

मरकर सही, दिल को ज़रा आराम आया

इन्कार भी , उनका, चलो , कुछ काम आया

  
उनकी गली की ख़ाक भी कहने लगी है

फिरसे मुहल्ले में वही बदनाम आया


सो ले ज़रा हम ओढकर चादर कफन की

यारो, अभी उनका कहाँ पैग़ाम आया ?


या रब, तुझी को ढूँढने घर से चले थे

हरसूँ किसी काफ़िर सनम का गाम आया


एहसान मानो, आह तक भरतें नहीं हम

इस कत्ल का तुमपर कहाँ इल्ज़ाम आया ?


तोडा कभी मंदिर, कभी मस्जिद गिराई

ना रोकने आया खुदा, ना राम आया


अंजाम-ए-मेहफ़िल साफ अब दिखने लगा है

कहने गज़ल फिर शायर-ए-नाकाम आया


कैसे मुकम्मल हो ’भँवर’ दीवान तेरा ?

आगाज़ से पहले तेरा अंजाम आया

बुधवार, मार्च 10, 2010

जब भी मिली, मिलकर गलें, बोली उदासी

जब भी मिली, मिलकर गलें, बोली उदासी

"बिछडे हुए दो दिल मिलें", बोली उदासी




अपने वफादारोंमें लिख लो नाम मेरा

क्यों हममें तुममें फासलें, बोली उदासी




अपने भी कुछ अरमान हैं, कुछ ख़्वाब रंगीं

अपनें भी घर फूले-फलें, बोली उदासी




कोई नहीं है हमसफर, साथी हमारा

खुशियों के लाखों काफ़िलें, बोली उदासी




कोई मुहब्बत के तराने भी सुनाए

कब तक ग़मों के वलवलें, बोली उदासी




कोई तो हँसकर थाम ले बाहें हमारी

हमको मिलें बस दिलजलें, बोली उदासी




कोई न हो साथी तुम्हारा, हम रहेंगे

हर शाम-ए-ग़म मिलकर चलें, बोली उदासी




आए हो तुम, खुशियोंने जब दामन छुडाया

खुदके नहीं यह फ़ैसलें, बोली उदासी




गहराइयाँ ग़म की, 'भँवर', हमसे न पूछो

कहिं कम पडे ना हौसलें, बोली उदासी

सोमवार, फ़रवरी 22, 2010

कई सदियोंसे बैठे हम खुशी की राह तकतें हैं

कई सदियोंसे बैठे हम खुशी की राह तकतें हैं


बिताने को शबेफुरकत ग़मोंके जाम चखतें हैं




खुली आँखोंसे हम पूजा किसीकी कर नहीं सकतें


पुराने मंदिरोंके बुत ज़रा टुटेसे लगतें हैं




बडा आसान होता है किसीसे प्यार कर लेना


हमें देखो, यही गलती हज़ारों बार करतें हैं




तुम्हारी शानमें गुस्ताख़ियाँ करतें रहें अब तक


तुम्हारी शानमें, लो, आज कुछ अशआर कहतें हैं




तेरा छूना नहीं है लाज़मी गुँचें चटकने को


'भँवर', तेरे बिना भी अनगिनत गुलज़ार खिलतें हैं

फूल बरसों तक चढाएँ पत्थरोंपर

फूल बरसों तक चढाएँ पत्थरोंपर

नाम तब आया हमारा उन लबोंपर



प्यास दिल कि कब बुझी है आँसुओंसे ?

कम नहीं था वरना पानी आरिज़ोंपर



यह दुवा है उम्रभर वह मुस्कुराए

जान भी कुरबान ऐसी हसरतोंपर



क्या चलन बदला हुआ है मौसमोंका ?

क्यों ख़िज़ाँ छाने लगी है कोंपलोंपर ?



आँधियोंने फिर हमारी लाज रख ली

डूबते हम जा रहे थे साहिलोंपर

शुक्रवार, फ़रवरी 19, 2010

टुकडे टुकडे हैं जमीनोआसमाँ तनहा

टुकडे टुकडे हैं जमीनोआसमाँ तनहा

हर नगरकी हर गलीका हर मकाँ तनहा 


बटते बटते बट चुका है आदमी इतना


ज़िस्मसे होकर अलहदा आज जाँ तनहा



जब सवालेज़िंदगी हैं मुख्तलिफ़ सबके


हर किसे देना पडेगा इम्तहाँ तनहा



हमखयालोहमनवा मिलता नहीं सबको


हालेदिल शायर करे अक्सर बयाँ तनहा



फेरकर मुँह चल दिया है नाखुदा कब का


आँधियोंसे लढ रहा है बादबाँ तनहा


कौनसी मंज़िलपे तू मिल जायेगा मुझको ?


अब चढा जाता नहीं इक पायदाँ तनहा



तीन हिस्सोंमें गुलिस्ताँ बट गया अपना


रह गये तनहा यहाँ हम, वह वहाँ तनहा


इस चमनमें गीत अब गातें नहीं पँछी


ऐ ’भँवर’ तू ही नहीं है बेज़बाँ तनहा 

मंगलवार, फ़रवरी 09, 2010

ज़रा नज़रें झुकाकर बात करते, बात बन जाती

ज़रा नज़रें झुकाकर बात करते, बात बन जाती

न था मुमकिन तो बस दीदार करते, बात बन जाती


रिवाज़ोरस्मेदुनिया के बहाने कब तलक दोगे ?

कभी दुनिया को भी नाराज़ करते, बात बन जाती


ज़माने की नज़र दिनरात है हमपर, चलो माना

कभी ख्व्वाबोंको ही गुलज़ार करते, बात बन जाती


घनेरे बादलोमें चाँद को कुछ और निखराते

चमकती आँख सुरमेदार करते, बात बन जाती


ज़रूरत क्या थी अपने हाथमें खंजर उठानेकी ?

नज़रसे मौत का सामान करते, बात बन जाती


हमेशा हुस्न के आगे झुके आशिक़ भला क्योंकर ?

उन्हेभी छेडते, बेहाल करते, बात बन जाती


कचहरी और कुतवाली के चक्कर क्यों लगाते हो ?

हमारी हमसे ही फरयाद करते, बात बन जाती


खुशी तो है के हमसे प्यार आख़िर कर लिया तुमने

जवानीमें अगर आगाज़ करते, बात बन जाती


बराये मेहरबानी ना मिलो तनहा रकीबोंसे 

सरेमेहफ़िल हमें रुसवाह करते, बात बन जाती


गज़ल लंबीसी कह देना कहाँ इतना ज़रूरी था ?

'भँवर' दिलसे ज़रासी आह करते, बात बन जाती

रविवार, जनवरी 31, 2010

बस्तियोंके दीप क्यों बुझने लगे हैं ?

बस्तियोंके दीप क्यों बुझने लगे हैं ?

रोशनीसे लोग क्या डरने लगे हैं ?



और कुछ जमहूरियत देगी, न देगी


ख्व्वाब के बाज़ार तो सजने लगे हैं



मंज़िलें अपनी जगह कायम हैं लेकिन


रास्तें मुडते हुए दिखने लगे हैं



रहनुमाओं ने कहाँ लाया हैं हमको ?


लोग उलटे पाँव क्यों चलने लगे हैं ?



गीत गाते थे बगावत के कभी जो


जानिबेदौलत जरा बढने लगे हैं



इन्किलाबी गीत अब गाता नहीं मैं


शेर कुछ कुछ अब मेरे बिकने लगे हैं



देख ली है पेशकदमी शायरोंकी


फिर मरीजेइश्कसे लगने लगे हैं



ऐ 'भँवर', चारों तरफ मेलें लगे हैं


फ़िक्र क्या इन्सान गर घटने लगे हैं ?

मंगलवार, जनवरी 26, 2010

खबर थी कि अपनी अलग राह चुनते

खबर थी कि अपनी अलग राह चुनते

कदम दो कदम तो मगर साथ चलते


नज़र ना चुराओ, तुम्हारी निगाहें

बदल जातीं है इक पलक के झपकते



अभी दाग दामनपर आया नहीं है

चुनरिया रही सर सरकते सरकते



बडी सख्त है जान हम पापियोंकी

गुजरती है सदियाँ निकलते निकलते



तुम्हारे महल हो; हमारी हैं गलियाँ

मिलोगे न कैसे यहाँ से गुजरते ?



कभी तो नज़र आइनेसे हटाओ

जवानी न बीते निखरते, सँवरते



जहाँ सिर्फ़ पतझड की आहट है बाकी

सुना था कभी पंछियों को चहकते



सभीने 'भँवर'से किया है किनारा

हमीं रह गये साहिलों को तरसते

मंगलवार, जनवरी 19, 2010

राह चलते हमकदम मिलता नहीं


 


राह चलते हमकदम मिलता नहीं 
चाहनेसे साज़ेदिल छिडता नहीं


राह जाती हो न चिडियाघर कहीं
दूर तक इक आदमी दिखता नहीं


मरघटोंसे है गया-गुज़रा शहर
धूम क्या, मातम यहाँ मचता नहीं


चश्मनम तो सूख जाती है मगर
क्या बला है खूनेदिल, थमता नहीं


एक मुद्दतसे नहीं कोई मिला
और खुद से अब तो जी भरता नहीं


खुदबखुद इक आह दिल से आ गयी
जानकर तो शेर मैं कहता नहीं


रोज़ हालेदिल नहीं कहतें, 'भँवर'
दश्तेसहरामें सुखन खिलता नहीं

यात्रा

मिट चुका हैं गाँव निकला था जिसे मैं छोडकर

और बसना था जहाँ, आबाद वह ना हो सका



दूर तक आगे दिखाई दे रही है बस डगर

रोकभी सकता नहीं मुडती हुई अपनी नज़र

लौटभी सकता नहीं अपनी प्रतिज्ञा तोडकर                         ||१||



दुख नहीं कि राहमें काटें अधिक हैं, फूल कम

दुख नही कि राहमें कोई नहीं है हमकदम

साथमें यादें सुहानी जब चली हैं झूमकर                             ||२||



पेड हैं निष्पर्ण सारें, छाँव देने से रहें

सूर्य तो बरसा किया, बादल बरसने से रहें

चाँद मेरा बादलोंमें छुप गया मुख मोडकर                           ||३||



प्यास का क्या, जन्मक्षणसे साथ है मृत्यू तलक

गात्र को आजन्म सहनी है क्षुधा की यह दहक

चित्त विचलित कर मुझे कहीं ले न जाए ओढकर                   ||४|| 

मंगलवार, जनवरी 12, 2010

जवाँ आशिकोंके दिलोंसा शहर है

जवाँ आशिकोंके दिलोंसा नगर है

सुकूँ है कहीं तो कहीं पर गदर है



कहाँ जा रहा हूँ, कहाँ तक सफर है ?


कहीं पर है मंज़िल, कहीं रहगुजर है



यहाँ आ गया जो, न फिर लौट पाया


बडा बेरहम यह तिलिस्मी नगर है



किसी रोज साकी करेगा इनायत


अभी जाम खाली हमारी नज़र है



जिये जा रहें सब, पिये जा रहें सब


नशा मुफ्लिसीका चढा सर-ब-सर है



न जन्नत मिली ना मिली हूर कोई


करूँ क्या, अभी वाइज़ोंपर गुजर है



न झुककर कभी पाँव छूना हमारें


हमारी दुआ तो बडी बेअसर है



अभी मस्त है वह जुए की फ़तहमें


कुरुक्षेत्र की ओर अपनी नज़र है



लगे ना कभी लत शराबेसुखन की


नशा मैकशी का पहर, दो पहर है



खयालात उमदा, न कोई हुनर है


बडे बेतुके शेर कहता 'भँवर' है