शनिवार, अप्रैल 23, 2011

झाँकते हैं लोग पाकर खिडकियाँ

झाँकते हैं लोग पाकर खिडकियाँ

काश, आँखोंमें न होती पुतलियाँ



मैं करूँ अफ़सोस किस किस बात का


दो घडी की ज़िंदगी के दरमियाँ



और क्या है दासतान-ए-इश्क़में


दूरियाँ, मजबूरियाँ, नाकामियाँ



आसमाँ के  ख्व्वाब देखे थे कभी


दे रही दो गज़ ज़मीं अब लोरियाँ



कुछ शहद है शायरीमें ख्व्वाबका


कुछ अधूरी चाहतों की तलखियाँ

जागते हैं पासबाँ, दो दिल मिला कैसे करें

जागते हैं पासबाँ, दो दिल मिला कैसे करें 

है तमन्ना वस्लकी पर हौसला कैसे करें



क्या सही है, क्या गलत यह फैसला कैसे करें


बीच है शर्मोहया, कम फासला कैसे करें



यह हमारी खुशनसीबी है के वह आते नहीं


वरना हम वादाखिलाफ़ी का गिला कैसे करें


 

फिर वही बू-ए-वतन, फिरसे वही नाशादियाँ 

ऐ सबा, परदेसमें हम घोसला कैसे करें



हर सहर आकर हमें यूँ लूटना अच्छा नहीं


ऐ 'भँवर', इस हालमें गुंचे खिला कैसे करें

शुक्रवार, अप्रैल 08, 2011

ग़म नहीं होता अगर, आँसू नहीं आते

ग़म नहीं होता अगर, आँसू नहीं आते

बेवजह दो दो पहर आँसू नहीं आते



याद आती है मगर आँसू नहीं आते


दिलपर वह टूटा कहर, आँसू नहीं आते



पत्थरोंसे क्या मुझे उसने तराशा है ?


आदमी होता अगर, आँसू नहीं आते ?



आज तक भूला नहीं हूँ मैं उसे लेकिन


आज कल शामो-सहर आँसू नहीं आते



आदतन आँचल को आँखोंसे लगाती है


वरना अब वक़्त्-ए-सफर आँसू नहीं आते



खूब रोया फूल जब बेवक़्त मुरझाये


जो गिरे सूखे शजर आँसू नहीं आते



संगदिल खुदको बनाया राहत-ए-ग़म को


अब गिला इसका नकर, आँसू नहीं आते

सोमवार, अप्रैल 04, 2011

ग़म नहीं है खून की थमती रवानी का

ग़म नहीं है खून की थमती रवानी का 

तय यही अंजाम है सबकी कहानी का 



हर सहर यह सोचता हूँ, शब नहीं होगी 


आखरी मौका मिला है शादमानी का 



जो गुजर जाती है उसको उम्र कहते हैं 


ज़िंदगी तो नाम है खिलती जवानी का 



हँस रहा था मैं हुबाब-ए-जाम पर लेकिन 


है उसीमें अक्स मेरी उम्र-ए-फानी का 



ना शिखा है, ना जनेऊ, और ना कश्का 


रब करे कैसे भरोसा बंदगानी का ? 



हश्र शायद संगदिलपर आज टूटा है


यह नया अंदाज़ वरना मेहरबानी का ? 



इस ज़मींमें किस तरह जमहूरियत फैले ?

मुल्क ही कायल अगर हो हुक्मरानी का ?


हर दफा पढकर नये मतलब निकल आयें 


क्या, 'भँवर', मोहताज होना लफ़्ज़-ए-मानी का ?

शुक्रवार, अप्रैल 01, 2011

दिल अगर टूटे तो रोना चाहिये

मेरी पिछली गज़ल, "आँखोंसे कुछ और बरसो, आँसुओं", पढकर मेरे एक ज्येष्ठ शायर मित्र, श्री.संदीप गुप्तेजीने सुझाया की उसके आखरी शेर की पहली पंक्ति, "दिल अगर टूटे तो रोना चाहिये" को ज़मीन के तौर पर इस्तमाल करके मैं नयी गज़ल लिखूँ. उनकी सूचना के अनुसार यह कुछ पंक्तियाँ लिखी है :

दिल अगर टूटे तो रोना चाहिये
कुछ सबूत-ए-ग़म भी होना चाहिये

चाहकर भी चाह पूरी ना हुई
अब वही चाहेंगे जो ना चाहिये

हसरत-ए-नाकाम के चर्चे न कर
बोझ अपना आप ढोना चाहिये

दिल अगर टूटे किसीका, क्या उन्हें ?
खेलने को इक खिलोना चाजिये

तल्खि-ए-हालात से मजबूर हूँ
वरना लब पर शहद होना चाहिये

यूँ नहीं दिल को सुकूँ मिलता यहाँ
आशना-ए-मर्ग होना चाहिये

हैं ज़मीनोआसमाँ सबके मगर
हर किसीको अपना कोना चाहिये