सोमवार, अक्तूबर 21, 2013

लगाओ ना गले मुझको, बहारो

लगाओ ना गले मुझको, बहारो 
कहीं तुम भी न मुरझाओ, बहारो 

टली है ना कभी पतझड टलेगी
खिलो लेकिन न इतराओ, बहारो 

कली को फूल करना चाहते हो
इरादा क्या है बतलाओ, बहारो 

कभी गुलशन, कभी सहरा बनाया
यह हमसे दिल्लगी छोडो, बहारो 

दरख़्तों की ज़रा लग जाये आँखें
कली की मुष्किलें समझो, बहारो 

चुभन मीठी हो उनकी, ज़ख़्म महकें
कभी काँटों पे भी छाओ, बहारो 

बदन को हम, चलो, समझा ही देंगे
मगर दिल से तो ना जाओ, बहारो 

गुलिस्ताँ में 'भँवर' होंगे न होंगे
खिजाँ के बाद जब आओ, बहारो  

पता तो चले की वो क्या कह रहे हैं

पता तो चले की वो क्या कह रहे हैं
लबों पर हँसीं, अश्क भी बह रहे हैं

सभी को फिकर ईंट-पत्थर के घर की
ज़रा देख लो, आदमी ढह रहे हैं?

दिलों में ज़हर क्यों भरे जा रहे हो?
यहाँ आज भी आदमी रह रहे हैं

मुनासिब समझ लो तो आँखें मिलाओ
गले से लगाने को कब कह रहे हैं?

मुझे बात बढती नजर आ रही है
न "हाँ" कह रहे हैं, न "ना" कह रहे हैं

अभी ज़िंदगी से नहीं मात खायी
कई ज़ख़्म खाये, कई शह सहे हैं

'भँवर', ढाल लेते हो ग़म को ग़ज़ल में
हज़ारों यहाँ बेजुबाँ सह रहे हैं