बुधवार, अप्रैल 20, 2016

सोचता हूँ किस तरह पहुँचा हूँ मैं मुल्क-ए-अदम

सोचता हूँ किस तरह पहुँचा हूँ मैं मुल्क-ए-अदम
कुछ रकीबों की दुवाएँ, यारों के कुछ हैं करम

क्या बताऊँ किस तरह, कैसे, कहाँ फिसले कदम
ख़्व्वाब से जागा हूँ कैसे, किस तरह टूटे भरम

इश्क़ भी करते नहीं वह, जाम भी भरते नहीं
क्या कहें हालत हमारी, होंठ सूखे, आँख नम

और क्या दोगे सज़ा मुझको मुहब्बत की, हुज़ूर?
बेवफा से प्यार कर बैठा हूँ मैं, क्या यह है कम?

कामयाबी का कहीं कोई नहीं नामोनिशाँ
फिर लगा बैठे हैं आँखें आसमाँ पर खुशफ़हम

लाख छोडी, फिर पहुँचती हैं लतें मुझ तक, ’भँवर’
खूब यह पहचानती होंगी मेरे नक्ष-ए-कदम 

सोमवार, फ़रवरी 08, 2016

कईं बार ऐसा हुआ मुस्कुराते

कईं बार ऐसा हुआ मुस्कुराते
उमड आये आँसू हँसी आते आते

निगाहों निगाहों में क्या कुछ कहा है
जवानी गुज़रती वह होटों पर आते

जभी जानिब-ए-मंज़िल-ए-इश्क जाते
कभी धुँद छाती, कभी मोड आते

किसी दिन दुबारा मुलाकात होगी
वह झूठी सही, यह तसल्ली दिलाते

ये अंजाम के ख़ौफ से या जुनूँ से
शरारोंभरे दो बदन कपकपाते

रखो सर भरोसे से काँधे हमारे
कटी उम्र सारी जनाज़े उठाते

खयाल आ गया मीर-ओ-ग़ालिब को पढते
’भँवर’ काश हम काफिया यूँ चलाते

रविवार, दिसंबर 20, 2015

रुक रुक के चल रहा है कारवान-ए-ज़िंदगी

रुक रुक के चल रहा है कारवान-ए-ज़िंदगी
शायद यही है दौर-ए-इम्तहान-ए-ज़िंदगी

रुसवा कदम कदम मुझे किया है जीते जी
मरघट चली न आये देने ताने ज़िंदगी

दुष्मन खडे दराँती हाथ में लिये हुए
डर है कहीं लगे न लहलहाने ज़िंदगी

कितना कहा के हूँ नहीं शरीक-ए-दौड मैं
कोडे लगाये जा रही, न माने ज़िंदगी

फ़रियाद भी वही करें, सजा भी दें वही
कितने अजीब हैं यह मेंबरान-ए-ज़िंदगी

क्यों रहबरों कि खोज में फिरे तू दर-बदर?
सबको लगाये एक दिन ठिकाने ज़िंदगी

मैं भी न बेरुखी से पेश आऊँ तो कहो
आग़ोश में तो आये मुँह छुपाने ज़िंदगी

इक उम्र इंतज़ार, एक पल विसाल का
इक मौत ही है अस्ल कद्रदान-ए-ज़िंदगी

आँखें न पढ सकेंगी, काम दिल से लीजिये
अशआर में छुपी है दास्तान-ए-ज़िंदगी

रविवार, जून 21, 2015

शराब ना शबाब है, करें बसर तो किस तरह

शराब ना शबाब है, करें बसर तो किस तरह
कबाड में बिके सुखन, करें गुजर तो किस तरह

न कान हैं खुले यहाँ, न द्वार मन के हैं खुले
यहाँ किसी की शायरी करे असर तो किस तरह

वह रेत में उठा के नक्षेपा कभी के गुम हुए
कटे तवील ज़िंदगी कि रहगुजर तो किस तरह

अगर घुली हो तलखियाँ शराब में, शबाब में
हरेक लफ्ज़ में भरा न हो ज़हर तो किस तरह

न आँख में नमी ज़रा, न ओस दिल में है 'भँवर'
के बीज इस ज़मीन में बने शजर तो किस तरह

शनिवार, फ़रवरी 21, 2015

रिहाई चाहता हूँ, अब कफस में जी नहीं लगता

रिहाई चाहता हूँ, अब कफस में जी नहीं लगता
बहुत ढूँढा, मगर अपना यहाँ कोई नहीं लगता

बुझा जाता हूँ खुद, अब और आँधी की ज़रूरत क्या?
उजाला चश्मेतर का क्या तुम्हें फानी नहीं लगता?

यह मुफलिस की है बीमारी, इसे मुफलिस ही समझेगा
यहाँ से चल, दवाखाना यह खैराती नहीं लगता

यह क्यों पेड़ों पर झूलों की जगह लाशें लटकती हैं
उसे क्या खाक समझाएँ, वह देहाती नहीं लगता

सनम की मरमरी बाहें, तराशासा बदन उसका
यह पत्थर वह है जिसमें दूर तक पानी नहीं लगता

टटोलो दिल को पहले, नाक-नकशा बाद में देखो
अजी, सूरत से खुद शैतान भी पापी नहीं लगता

किताबों में पढा था, ज़िंदगी यह खूबसूरत है
किताबों का ,'भँवर', हर लफ्ज़ बेमानी नहीं लगता?

गुरुवार, नवंबर 06, 2014

ज़िंदगी की दौड में नींद कम, आराम कम

ज़िंदगी की दौड में नींद कम, आराम कम
इस लिये दे पाते हम ख़्व्वाब को अंजाम कम

अब खुमार आता नहीं, दर्देदिल जाता नहीं 
जाये भी तो किस तरह; ग़म जियादा, जाम कम

फलसफे इस दौर के खुष्क हैं, बेजान हैं
शेख, पंडित हैं बहुत, ग़ालिबोखय्याम कम

साफ ज़ाहिर है कहाँ लोग पाते हैं सुकूँ
बढ रहे हैं मैकदे, हो रहे हैं धाम कम

कौन कहता है, 'भँवर', दौर है महँगाई का?
हो रहा है दिनबदिन आदमी का दाम कम 

मंगलवार, जुलाई 29, 2014

तजुर्बों कि तल्खी, खयालों कि मिसरी

तजुर्बों कि तल्खी, खयालों कि मिसरी
ग़ज़ल इन से होकर ही काग़ज पर उतरी

दवात-ओ-कलम से अगर बात बनती
तो शाइर न मिलते कचहरी कचहरी?

ढली हुस्न के साथ पाबंदियाँ भी
कभी खंडरों पर भी होते हैं पहरी?

जरा अपने दामन में झाँको, तो जानो
न हो दाग ऐसी नहीं कोई चुनरी

सफर खत्म होने को है, पर न समझा
कहाँ वक़्त ठहरा, कहाँ उम्र गुजरी

'भँवर', दिन गुजरते चले जा रहे हैं
मगर ज़िंदगी है के ठहरी कि ठहरी