मंगलवार, जनवरी 19, 2010

यात्रा

मिट चुका हैं गाँव निकला था जिसे मैं छोडकर

और बसना था जहाँ, आबाद वह ना हो सका



दूर तक आगे दिखाई दे रही है बस डगर

रोकभी सकता नहीं मुडती हुई अपनी नज़र

लौटभी सकता नहीं अपनी प्रतिज्ञा तोडकर                         ||१||



दुख नहीं कि राहमें काटें अधिक हैं, फूल कम

दुख नही कि राहमें कोई नहीं है हमकदम

साथमें यादें सुहानी जब चली हैं झूमकर                             ||२||



पेड हैं निष्पर्ण सारें, छाँव देने से रहें

सूर्य तो बरसा किया, बादल बरसने से रहें

चाँद मेरा बादलोंमें छुप गया मुख मोडकर                           ||३||



प्यास का क्या, जन्मक्षणसे साथ है मृत्यू तलक

गात्र को आजन्म सहनी है क्षुधा की यह दहक

चित्त विचलित कर मुझे कहीं ले न जाए ओढकर                   ||४|| 

कोई टिप्पणी नहीं: