बुधवार, अप्रैल 07, 2010

सुकून-ए-जिगर को शरारा न कर ले

सुकून-ए-जिगर को शरारा न कर ले

कहीं दिल मुहब्बत गवारा न कर ले


यह माना हिजाबों में रहते हो लेकिन

हरममें ही कोई नज़ारा न कर ले


न यूँ छेडकर आग दिलमें लगाओ

यह आँधी कहीं रुख तुम्हारा न कर ले


कई साल के बाद रूठे हैं फिरसे

कहीं इश्क़ हमसे दुबारा न कर ले


किसी दिन तो, बेशक, ख़तम खेल होगा

शब-ए-वस्ल क्यों ख़त्म सारा न कर ले


'भँवर', ख़्वाब-ए-मंज़िल जुबाँपर न लाना

कहीं राह मुडकर किनारा न कर ले

3 टिप्‍पणियां:

daanish ने कहा…

न यूँ छेडकर आग दिलमें लगाओ
यह आँधी कहीं रुख तुम्हारा न कर ले

'भँवर', ख़्वाब-ए-मंज़िल जुबाँपर न लाना
कहीं राह मुडकर किनारा न कर ले

achhee gazal kahi hai
ye do sher mujhe
khaas taur pr psand aye....

Shekhar Kumawat ने कहा…

bahut khub

badhai aap ko is ke liye


shekhar kumawat

http://kavyawani.blogspot.com/

नीरज गोस्वामी ने कहा…

न यूँ छेडकर आग दिलमें लगाओ
यह आँधी कहीं रुख तुम्हारा न कर ले

वाह वा वा...कमाल के शेर कहें आपने..आज आपको पहली बार पढने का मौका मिला...आपके लेखन ने बहुत प्रभावित किया है...बहुत अच्छा लगा..आप के ब्लॉग की साज सज्जा भी गज़ब की है...ढेरों बधाई..
नीरज