बुधवार, मई 02, 2012

बादलों से हो ढके उन माहताबों से हमें क्या

बादलों से हो ढके उन माहताबों से हमें क्या
जो कभी सर से न सरके उन हिजाबों से हमें क्या

जानते हैं, बेवफा हैं शोख, मस्ताना निगाहें
तश्नगी से हैं मरासिम, डर सराबों से हमें क्या

सच न हो तो ग़म नहीं है, यह नहीं उम्मीद उनसे
चंद लमहों का सुकूँ दें, और ख़्वाबों से हमें क्या

डर लगे चिंगारियों से, जल न जाए आशियाना
अपनी फुलवारी रहे, बस, इन्किलाबों से हमें क्या

हम 'भँवर' हैं, ढूँढ लेंगें अपने मतलब के चमन को
खिलने से जो तर्क कर लें उन गुलाबों से हमें क्या

2 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

अच्छी रचना...बधाई

नीरज

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत बहुत सुंदर.........

अनु