सोमवार, मई 13, 2013

ताउम्र चलने के सिवा चारा नहीं है



ताउम्र चलने के सिवा चारा नहीं है
है कौन जो इस राह का मारा नहीं है?

दुनिया न रोशन कर सका तू, ना सही, पर
क्या तू किसी की आँख का तारा नहीं है?

है आग की लपटों में तेरी ज़िंदगी तो
खुशियाँ मना, जीवन में अँधियारा नहीं है

खुशबू पसीने की बदन से आ रही है
कहती है, यह इन्सान नाकारा नहीं है

रुख मोड लेती है मगर रुकती नहीं है
क्या ज़िंदगी बहती हुई धारा नहीं है?

माना 'भँवर' मंज़िल तलक पहुँचा नहीं है
वह राह में भटका है, आवारा नहीं है




Photograph by Pushkar V. Used under Creative Commons license.

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