रविवार, जून 28, 2009

होती नही किसीके वह इख़्तियारमें

होती नही किसीके वह इख़्तियारमें
आकर ख़िजाँ रहेगी बागे-बहारमें


मैं अंजुमन अकेला, तनहा हजारमें
इतना कभी न खुश था जितना मज़ारमें


अरसा हुआ किसीकी आहट सुने हुए
पाज़ेब क्या बजेंगे उजडे दयारमें ?


ना शाम-ए-ग़म कटी, ना रातें फ़िराक़की
इक उम्र कट गई है सब्रोकरारमें


सहरा-ए-ज़िंदगीमें चलती हैं आँधियाँ
किसके निशाँ रहें हैं बाकी गुबारमें ?

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