गुरुवार, सितंबर 09, 2010

माना इनायतोंके काबिल तो हम नहीं

माना इनायतोंके काबिल तो हम नहीं

कैसी यह बेरुखी के ज़ुल्मोसितम नहीं ?



मुखडा हथेलियोंमें तुमने छुपा लिया

हाँ, ऊँगलियाँ हैं फैली, यह भी तो कम नहीं



मंज़िल मिले तो कैसे मुझ नामुराद को?

या रहगुजर नहीं या फिर हमकदम नहीं



आदत हुई है इतनी दुख-दर्द की मुझे

कैसे बिताऊँ उसको जो शामेग़म नहीं ?



ठहरो, कहार, थोडा सज लूँ, सँवार लूँ

दुनिया कहे जनाज़ा डोली से कम नहीं

2 टिप्‍पणियां:

Sunil Kumar ने कहा…

ठहरो, कहार, थोडा सज लूँ, सँवार लूँ
दुनिया कहे जनाज़ा डोली से कम नहीं
शेर अच्छा लगा बहुत बहुत बधाई

Rajeev Bharol ने कहा…

बहुत अच्छी ग़ज़ल.
"उँगलियाँ हैं फैलीं" वाला शेर तो बहुत ही अच्छा है.

(कमेंट्स से वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें..कमेन्ट देने में मुश्किल होती है.)