शनिवार, जुलाई 30, 2011

आज मेहफिलमें नहीं नाम-ओ-निशाँ परवाने का

आज मेहफिलमें नहीं नाम-ओ-निशाँ परवाने का

यह न हो आलम कहीं खुद शम्म्‍अ‌ के जल जाने का



हुस्न को भगवानने क्या खूब दे रख्खी जुबाँ


अर्ज भी करते हैं तो अंदाज़ है फरमाने का



और कितनी देर उठ-उठकर कयामत ढायेंगी ?


कब हुनर सीखेगी पलकें मूँदने-शरमाने का ?



हर नये दिन का अगर आग़ाज़ हो दीदारसे


ग़म किसे महसूस होगा चाँद के ढल जाने का ?



हाँ, हमें भी वक्त-ए-पीरी याद आना है खुदा


आज तो दिलपर है हावी संग इक बुतखानेका



दैर की इस भीडमें दुखसुखकी बातें क्या करें ?


देव, फुरसतमें किसी दिन रुख करो मैखाने का



दीन, दुनिया, दिल के मसले आप क्या कम थे, 'भँवर'


ज़िंदगीभर आदमी मोहताज क्यों है दाने का ?

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