रविवार, फ़रवरी 19, 2012

कौन कहता है मुहब्बत का जनाज़ा निकला

कौन कहता है मुहब्बत का जनाज़ा निकला
बात इतनी सी है, अपना भी पराया निकला

उम्र-ए-रफ़्ता को भुलाऊँ तो भुलाऊँ कैसे
बज़्म-ए-तनहाई में हर दम वह ज़माना निकला

खत लिखे लाख मगर लौट के आए सारे
जो किसीने न पढा ऐसा रिसाला निकला

आदमी कौन यहाँ, देव किसे कहते हैं
जिस को देखा वही पत्थर से तराशा निकला

चाल हम ऐसी चले, मात हमारी तय थी
जिस पर हमला किया वह सिर्फ पयादा निकला

थि खुमारी-ए-मुहब्बत तो लगा दिल गुलशन
होश आया तो वही बाग ख़राबा निकला

आज कल लोग, 'भँवर', भक्त हुए जाते हैं
के सर-ए-कू-ए-ख़राबात शिवाला निकला

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