रविवार, नवंबर 28, 2010

अभी कुछ और है लड़ना ज़मानेसे

अभी कुछ और है लड़ना ज़मानेसे 

कभी का रूठता वरना ज़मानेसे 



नहीं मंजूर गर कटना ज़मानेसे 


तो है लाज़िम सुलह करना ज़मानेसे 



लड़ाई एकतर्फा, जीत मुष्किल है 


अभी इन्सान है अदना ज़मानेसे 



ज़माना था कहाँ, पहुँचा कहाँ देखो 


रहे मुफ्लिस वहीं, कहना ज़मानेसे 



कई भूखें, कई नंगें, कई बेघर 


अभी कितनों को हैं हटना ज़मानेसे 



छुपा रख्खे हैं हमने ख्वाब सीनेमें 


सहा जाता नहीं सपना ज़मानेसे 



छुपाओ लाख मीना और साग़र को 


छुपे ना, हाय, लड़खड़ना ज़मानेसे 



हमीमें रह गई होगी कमी कोई 


शिकायत क्या युँहीं करना ज़मानेसे 



’भँवर’ने नाव को कुछ इस तरह मोडा 


अलग होकर पड़ा बहना ज़मानेसे

1 टिप्पणी:

Sunil Kumar ने कहा…

हमीमें रह गई होगी कमी कोई
शिकायत क्या युँहीं करना ज़मानेसे
sahi kaha aapne achha sher badhai