सोमवार, अप्रैल 04, 2011

ग़म नहीं है खून की थमती रवानी का

ग़म नहीं है खून की थमती रवानी का 

तय यही अंजाम है सबकी कहानी का 



हर सहर यह सोचता हूँ, शब नहीं होगी 


आखरी मौका मिला है शादमानी का 



जो गुजर जाती है उसको उम्र कहते हैं 


ज़िंदगी तो नाम है खिलती जवानी का 



हँस रहा था मैं हुबाब-ए-जाम पर लेकिन 


है उसीमें अक्स मेरी उम्र-ए-फानी का 



ना शिखा है, ना जनेऊ, और ना कश्का 


रब करे कैसे भरोसा बंदगानी का ? 



हश्र शायद संगदिलपर आज टूटा है


यह नया अंदाज़ वरना मेहरबानी का ? 



इस ज़मींमें किस तरह जमहूरियत फैले ?

मुल्क ही कायल अगर हो हुक्मरानी का ?


हर दफा पढकर नये मतलब निकल आयें 


क्या, 'भँवर', मोहताज होना लफ़्ज़-ए-मानी का ?

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