शनिवार, अप्रैल 23, 2011

झाँकते हैं लोग पाकर खिडकियाँ

झाँकते हैं लोग पाकर खिडकियाँ

काश, आँखोंमें न होती पुतलियाँ



मैं करूँ अफ़सोस किस किस बात का


दो घडी की ज़िंदगी के दरमियाँ



और क्या है दासतान-ए-इश्क़में


दूरियाँ, मजबूरियाँ, नाकामियाँ



आसमाँ के  ख्व्वाब देखे थे कभी


दे रही दो गज़ ज़मीं अब लोरियाँ



कुछ शहद है शायरीमें ख्व्वाबका


कुछ अधूरी चाहतों की तलखियाँ

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