सोमवार, जुलाई 04, 2011

लब्ज़ों के पैंतरोंसे आगे बढा न कोई

लब्ज़ों के पैंतरोंसे आगे बढा न कोई

अक्स-ए-खयाल-ए-शायर गर-चे दिखा न कोई



मुझको मिली न होगी ऐसी सजा न कोई


मेरे गुनाह क्या हैं, समझा सका न कोई



बदनाम मेहफिलोंने दामन छुडा लिया है


बज़्म-ए-शरीफ का भी देता पता न कोई



कितने अजीब हैं यह दुनिया के रास्ते भी


गुजरे हैं सब यहाँसे लेकीन बसा न कोई



चौपाल भी वहीं है, बाज़ार भी वहीं है


साहिब, खरी सुनाने कबिरा खडा न कोई



किस्सा-ए-ज़िंदगानी अक्सर रहे अधूरा


होता है खत्म कैसे यह जानता न कोई

1 टिप्पणी:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

कितने अजीब हैं यह दुनिया के रास्ते भी
गुजरे हैं सब यहाँसे लेकीन बसा न कोई


Simple Superb.

Neeraj