मंगलवार, जनवरी 31, 2012

कहाँ खो गये हैं लबों के तबस्सुम




कहाँ खो गये हैं लबों के तबस्सुम            ||धृ|| 

न दिन में कोई ग़म, न रंजिश सर-ए-शब
भरे थे सुकूँ के पियाले लबालब
ज़ुबाँ पे ज़हर था, न दिल में ज़हर था
न टूटा हमारे सरों पर कहर था
फ़लक पर करोड़ों चमकते थे अंजुम         ||१||

कभी सोचता हूँ मैं बैठा अकेला                            
ये तनहाईयों का कहाँ तक है मेला
नज़र जानिब-ए-मंज़िल-ए-ज़िंदगी है
मैं जिस ओर देखूँ वहीं तीरगी है
कहाँ रोशनी के सहारे हुए गुम?              ||२||

ये लंबा सफर क्या कभी खत्म होगा?
थका है मुसाफ़िर, कहाँ तक चलेगा?
निशाँ तक नहीं तेरे कदमों के यारब
तेरी रहमतों के हैं प्यासे मेरे लब
कभी साकिया बन के रख सामने खुम      ||३||

कोई टिप्पणी नहीं: